कश्मीर में गांधी और गांधीवादी

रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार

Last updated: Sun, 18 Aug 2019 10:26 PM IST

रामचंद्र गुहा प्रसिद्ध इतिहासकार
महात्मा गांधी अगस्त 1947 के पहले सप्ताह में कश्मीर घाटी गए थे। तब वह 71 वर्ष के थे और यात्रा दुष्कर थी, लेकिन व्यक्तिगत कर्तव्य और राष्ट्रीय सम्मान, दोनों ही उन्हें वहां खींच ले गए। देश आजाद होने वाला था और विभाजित भी, तब तक यह साफ नहीं था कि विभाजन के बाद जम्मू-कश्मीर रियासत किधर जाएगी। राज्य की ज्यादातर आबादी मुस्लिम थी और उनके लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला चूंकि सेकुलर थे, इसलिए पाकिस्तान को नापसंद करते थे। रियासत के शासक महाराजा हरि सिंह हिंदू थे, लेकिन वह भारत या पाकिस्तान में से किसी के साथ जाना नहीं चाहते थे। इसकी बजाय वह एक तरह से पूर्वी स्विट्जरलैंड बसाने और वहां के प्रभु-शासन प्रमुख होने के सपने संजो रहे थे।
गांधीजी की यात्रा के दो मुख्य लक्ष्य थे- महाराजा को शेख अब्दुल्ला की रिहाई के लिए मनाना, और यह पता लगाना कि कश्मीरी क्या सोच रहे हैं। जब वह घाटी पहुंचे, तो उनका शानदार स्वागत हुआ। जब वह श्रीनगर में प्रवेश कर रहे थे, तब हजारों लोग उन्हें सड़क के दोनों ओर खडे़ मिले। वे नारे लगा रहे थे, महात्मा गांधी की जय। चूंकि झेलम के पुल पर भीड़ भरी थी, इसलिए गांधीजी नाव के सहारे दूसरी ओर पहुंचे। जहां उन्होंने एक ऐसी बैठक को संबोधित किया, जिसमें करीब 25 लोग शामिल थे। इसका आयोजन शेख अब्दुल्ला की पत्नी ने किया था। उन्होंने हिन्दुस्तानी में राजनीतिक मामलों की बजाय अध्यात्म की चर्चा की। उनकी डॉक्टर सुशीला नैयर भी उनके साथ थीं। सुशीला नैयर ने लिखा है, ‘पड़ोस के गांवों से औरत और मर्द गांधीजी को एक झलक भर देखने आए हुए थे। लोगों पर उनकी पकड़ देखकर दोस्त और दुश्मन, दोनों ही समान रूप से चकित थे। उनकी उपस्थिति मात्र ने उन लोगों को अजीबोगरीब ढंग से शांत कर दिया था।’
गांधीजी ने तीन दिन घाटी में और दो दिन जम्मू में बिताए। अपनी यात्रा का संक्षिप्त विवरण गांधी ने नेहरू और पटेल को भेजा था। गांधी ने महाराजा हरि सिंह और उनके पुत्र कर्ण सिंह से अपनी बातचीत के बारे में लिखा था, ‘दोनों ने स्वीकार किया कि ब्रिटिश सत्ता की चूक से ही कश्मीर की जनता को सच्ची सत्ता हासिल होगी। हालांकि वे खुद भारतीय संघ में शामिल होने की इच्छा रखते हैं, लेकिन लोगों की इच्छा के अनुसार, उन्हें चयन करना होगा। वे यह कैसे तय करेंगे, इस पर मुलाकात में कोई चर्चा नहीं हुई।’
यद्यपि शेख अब्दुल्ला जेल में थे, लेकिन उनकी नेशनल कांफ्रेंस के दूसरे नेता बाहर थे, गांधी उनसे भी मिले। उन्होंने बाद में नेहरू और पटेल को लिखा कि नेशनल कांफ्रेंस के नेता ज्यादा आशावान हैं कि स्वतंत्र मतदान हुआ, तो लोग कश्मीर के भारतीय संघ में शामिल होने के पक्ष में वोट करेंगे, बशर्ते शेख अब्दुल्ला व उनके साथियों को रिहा कर दिया जाए।
गांधी ने पहला स्वतंत्रता दिवस दिल्ली में नहीं, कोलकाता में बिताया था। वह उत्सव मनाने की मानसिकता में नहीं थे, क्योंकि भारत भर में हिंदू-मुस्लिम दंगों की लहर थी। अपनी अलग राह पर चलते हुए गांधी उपवास के जरिए अकेले ही कोलकाता में हिंसा रोकने में सफल हुए और फिर यही दोहराने की आशा के साथ दिल्ली की ओर बढ़े।
सितंबर के अंत में महाराजा ने शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर दिया। तीन सप्ताह बाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर चढ़ाई कर दी, ताकि राज्य को बलपूर्वक हड़प ले। शेख अब्दुल्ला हमलावर के खिलाफ लोगों को एकजुट करने के लिए आगे आए। उनके साहस के बारे में सुनने के बाद गांधी ने दिल्ली में 29 अक्तूबर, 1947 को अपनी प्रार्थना सभा में कहा, ‘कश्मीर की सुरक्षा महाराजा द्वारा नहीं हो सकती। अगर कोई कश्मीर को बचा सकता है, तो वह केवल मुस्लिम, कश्मीरी पंडित, राजपूत और सिख हैं।’ गांधी ने बहुत अनुराग और महत्व के साथ रेखांकित किया कि इन सभी (समुदायों) के साथ शेख अब्दुल्ला के स्नेहिल और दोस्ताना संबंध हैं।
एक महीने के बाद जब भारतीय सेना पाकिस्तानी हमलावरों को माकूल जवाब दे रही थी, तब शेख अब्दुल्ला दिल्ली आए। 28 नवंबर को गांधी की प्रार्थना सभा में वह गांधी के बगल में खड़े थे, तब महात्मा ने कहा, शेख अब्दुल्ला ने एक महान कार्य किया है, इन्होंने कश्मीर में हिंदू, सिख और मुस्लिमों को एकजुट रखा और ऐसा माहौल बनाया, जहां वे साथ जीना-मरना पसंद करेंगे।
दो महीने बाद गांधी की हत्या हो गई। उसके बाद के सात दशकों में कश्मीर एक से दूसरे संकट की ओर बढ़ता रहा है। ज्यादती और धार्मिक कट्टरता ने भारत के इस सबसे खूबसूरत हिस्से को सबसे संघर्षग्रस्त क्षेत्र बना रखा है। गांधी अगर जीवित होते, तो कश्मीर के आधुनिक इतिहास के घटनाक्रमों से शायद सबसे ज्यादा त्रस्त होते। आज कश्मीर के मुद्दे पर टिप्पणी के लिए गांधी नहीं हैं, लेकिन उनके नाम पर कुछ विश्वसनीयता के साथ बात करने वाले तो हैं। मुझे कश्मीर मामले पर गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा जारी एक वक्तव्य हासिल हुआ है। बहुत से युवा पाठकों को शायद नहीं पता होगा, महान जयप्रकाश नारायण भी इस प्रतिष्ठान से नजदीक से जुड़े हुए थे। उनकी तरह ही इस प्रतिष्ठान ने भी साहस के साथ आपातकाल का विरोध किया था और 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के बाद उसे निशाना भी बनाया गया था।
इस प्रतिष्ठान ने अपने वक्तव्य में चेताया है कि लोगों की आवाज सुननी चाहिए। किसी को ज्यादा समय तक अलग-थलग नहीं रखा जा सकता, इससे दुश्मनों को माहौल में और जहर घोलने का मौका मिलेगा। सरकार हर स्तर पर जल्द से जल्द खुली अभिव्यक्ति बहाल करे, ताकि स्थितियों को सामान्य बनाने में मदद मिले। गांधी होते, तो शायद ऐसा ही सोचते। गांधी के उस वक्तव्य को याद करना चाहिए कि अगर कोई कश्मीर को बचा सकता है, तो वे केवल मुस्लिम, कश्मीरी पंडित, राजपूत और सिख हैं।
राष्ट्रपिता गांधी की शिक्षाओं को पीठ न दिखाने वाले भारतीयों को, जिनमें कश्मीरी भी शामिल हैं, अपने प्रयास बंद नहीं करने चाहिए। रोजमर्रा के जीवन में बोलने-लिखने में सच्चाई, बहस और संवाद में तर्क, व्यवहार में अहिंसा, धार्मिक सद्भाव के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता के आदर्शों व सिद्धांतों को इस अंधेरे समय में भी जीवित रखना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Comments

popular

firebase authentication using email/password

ABOUT SANTAN DHARM

HTML5 Tutorial

Google AMP Tutorial

firebase realtime database