इस मर्ज की दवा नहीं है आधार
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इस मर्ज की दवा नहीं है आधार
पवन दुग्गल, साइबर कानून विशेषज्ञ
- Last updated: Thu, 22 Aug 2019 12:12 AM IST
सुप्रीम कोर्ट ने लोगों का ध्यान इस महत्वपूर्ण सवाल की तरफ खींचा है कि क्या सोशल मीडिया अकाउंट को आधार से जोड़ा जाना चाहिए? इस प्रस्ताव के समर्थन में सरकार कह रही है कि आधार को सोशल मीडिया के साथ जोड़ने से फर्जी खबरों, साइबर बुलिंग और ट्रोलिंग जैसे अपराधों से लड़ने में मदद मिलेगी और एक व्यवस्थित साइबर स्पेस बनाने की दिशा में हम आगे बढ़ सकेंगे। इसके अलावा, यह भी कहा गया है कि इस तरह के कदम से साइबर अपराध और ऑनलाइन अवांछित-असभ्य व्यवहार को रोकने में मदद मिलेगी।
यह विचार बेशक अच्छा लगने वाला है, लेकिन तथ्य यही है कि ऐसा करने से बड़ी संख्या में कानूनी और नीतिगत चुनौतियां पैदा हो सकती हैं। इनमें सबसे बड़ी चुनौती तो निजता के बचाव और संरक्षण की होगी। न्यायमूर्ति पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए निजता के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हमारे जीवन के मौलिक अधिकार का हिस्सा माना था। इस निजता में सिर्फ व्यक्तिगत नहीं, डाटा की निजता भी शामिल है। इसीलिए, सोशल मीडिया अकाउंट के साथ आधार को जोड़ने से व्यक्तिगत निजता और डाटा की निजता, दोनों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
चूंकि राज्य की कार्रवाई के खिलाफ मौलिक अधिकार लागू होता है, इसलिए सरकार द्वारा की जाने वाली किसी भी कार्रवाई से उसके खिलाफ निजता के उल्लंघन की ढेरों शिकायतें दर्ज हो सकती हैं। यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि आधार कोई सामान्य जानकारी नहीं है। यह किसी इंसान का निजी डाटा है, जिसके आधार पर उस इंसान को पहचानने में मदद मिलती है। यही नहीं, आधार संख्या सीधे तौर पर व्यक्ति के बायोमेट्रिक विवरण से जुड़ी होती है। सोशल मीडिया सेवा देने वाली कंपनियों के साथ ऐसी जानकारी साझा करने से लोगों के निजता के अधिकार का उल्लंघन हो सकता है। इसीलिए इस मुद्दे पर आगे बढ़ने से पहले पर्याप्त सोच-विचार कर लेना चाहिए।
एक अन्य मसला, जिस पर विचार की जरूरत है, वह यह कि इस तरह के कदम उत्पादकता को प्रभावित कर सकते हैं और देश की संप्रभुता, सुरक्षा और अखंडता पर प्रतिकूल असर डाल सकते हैं। सोशल मीडिया सेवा मुहैया कराने वाली ज्यादातर कंपनियों का मुख्यालय भारत की सीमा के बाहर है। ऐसे में, यदि सोशल मीडिया अकाउंट से आधार को जोड़ दिया जाता है, तो आधार का डाटा भी विदेशी सर्वर पर चला जाएगा, जो देश के न्यायिक क्षेत्र के अधीन नहीं होगा। इससे यह जानकारी विभिन्न विदेशी सरकारें व उनकी प्रतिनिधि संस्थाएं इस्तेमाल कर सकती हैं। नॉन-स्टेट एक्टर्स इसका फायदा उठाकर आधार के इको-सिस्टम पर हमला कर सकते हैं, जिससे भारत के इस क्रिटिकल इन्फॉर्मेशन इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खतरा बढ़ सकता है।
इस पूरी तस्वीर का एक जटिल पहलू यह है कि भारत में आज भी डाटा को स्थानीय स्तर पर रखने से जुड़ा कोई समर्पित कानून नहीं बन पाया है। इस मामले में भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 भी पूरी तरह से खामोश है। आधार कानून भी व्यापक तौर पर इस मसले को नहीं समेटता। डाटा स्थानीयकरण कानून के अभाव में यदि आधार और सोशल मीडिया खातों को जोड़ा जाएगा, तो सरकार के सामने कई अन्य नई कानूनी चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं।
यदि ऐसा कुछ किया जाता है, तो साइबर सुरक्षा के तमाम मानकों पर गौर करना अनिवार्य होगा, क्योंकि आधार का डाटा सुरक्षित होना चाहिए। अभी यह पता नहीं है कि सोशल मीडिया प्रदाता कंपनियां किस प्रकार की साइबर सुरक्षा तंत्र और प्रक्रियाओं को अपनाएंगी, ताकि उनके सर्वर पर आधार के डाटा की रक्षा हो सके। मगर यह देखते हुए कि इन सोशल मीडिया कंपनियों में से अधिकांश के सर्वर भारत से बाहर स्थित हैं, यह स्पष्ट है कि आधार की जानकारी को संभालने वाले ऐसे सर्वरों की साइबर सुरक्षा का दायरा भारत सरकार के दायरे से बाहर तो होगा ही, हमारे कानून की जद में भी नहीं होगा।
इस संबंध में कोई अंतरराष्ट्रीय मानदंड भी नहीं है। सरकार का यह कदम चुनौतियों से पार पाने में कतई मदद नहीं करेगा। अधिकांश साइबर अपराधी अपराध के लिए इस लिंकेज की प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि इस तरह का कदम उठाकर हम साइबर अपराधियों या साइबर ट्रोल करने वालों को रोक सकेंगे। हां, ऐसा करने से नए मुकदमों का बोझ जरूर बढ़ जाएगा। आधार को सोशल मीडिया खातों की पहचान का साधन नहीं माना गया था, इसलिए सोशल मीडिया से आधार को जोड़ने के किसी भी कदम को भारतीय संविधान और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 के प्रावधानों के उल्लंघन के रूप में चुनौती दी जा सकती है। ऐसे में, अच्छा रास्ता तो यही होगा कि भारत सरकार फेक न्यूज यानी फर्जी खबरों को रोकने के लिए कानून बनाए और उसके प्रावधानों को प्रभावी रूप से लागू करे।
भारत को मध्यस्थ दायित्व संबंधी मुद्दों पर भी विचार करने की जरूरत है।
भारत को मध्यस्थ दायित्व संबंधी मुद्दों पर भी विचार करने की जरूरत है।
यह सेवा मुहैया कराने वाली कंपनियों की महत्वपूर्ण भूमिका है कि वे साइबर ट्रोलिंग और फर्जी खबरों को अपने नेटवर्क से प्रसारित नहीं होने दें। दुर्भाग्य से श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ फैसले के बाद, अधिकांश सोशल मीडिया सेवा प्रदाता कंपनियों ने भारत की सर्वोच्च अदालत द्वारा की गई टिप्पणियों की आड़ में महज दर्शक होने की भूमिका को चुना है। भारत सरकार चाहे, तो सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा 87 के तहत नए नियम लाकर सोशल मीडिया प्रदाता कंपनियों को फर्जी खबरों और साइबर बुलिंग-ट्रोलिंग आदि के खिलाफ कुछ खास कार्रवाई करने को बाध्य कर सकती है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि ये सेवा प्रदाता कंपनियां बेशक भौतिक रूप से भारत में मौजूद न हों, लेकिन भारतीय कंप्यटूर, कंप्यूटर सिस्टम और नेटवर्क से अपनी सेवा देने के कारण इन पर भारतीय कानून लागू होना ही चाहिए।
इसके अलावा, मध्यस्थ दायित्वों के अन्य प्रावधानों को लागू करते हुए मध्यस्थों को भी उत्तरदायी बनाना होगा, क्योंकि यह देखा गया है कि फर्जी खबर की सूचना देने के बावजूद वे कुछ अवधि तक कोई कार्रवाई नहीं करते। जाहिर है, आधार को सोशल मीडिया से जोड़ने की बजाय कुछ दूसरे कदमों से चुनौतियों से कहीं बेहतर तरीके से निपटा जा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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